प्रशांत किशोर के बारे में बात करें तो नेता बनने से पहले उनकी पहचान सफल चुनावी रणनीतिकार की थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के चुनावी कैंपेन को धार देने के बाद उन्होंने कई पार्टियों के लिए काम किया। यूपी विधानसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के प्रचार की जिम्मेदारी ली। अक्टूबर 2018 में वह जेडीयू में शामिल हुए और उन्हें सीधे पार्टी का उपाध्यक्ष बना दिया गया। सीधे इतना बड़ा पद दिए जाने के बाद से ही प्रशांत किशोर पार्टी के उन नेताओं को खटक रहे थे, जो पहले नीतीश के काफी करीबी हुआ करते थे। हालांकि, तब नीतीश ने प्रशांत के खिलाफ उठने वाली आवाजों को शांत कर दिया, लेकिन पार्टी सूत्र बताते हैं कि पीके की स्वीकार्यता नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच कभी नहीं रही, सभी नीतीश की वजह से ही चुप रहे। शुरुआत में पीके को नीतीश के उत्तराधिकारी के रूप में भी देखा जा रहा था।
जेडीयू ने संसद में सीएए का समर्थन किया था। इससे इतर प्रशांत किशोर लगातार सीएए विरोधी बयान देते रहे। हालांकि, जेडीयू अध्यक्ष नीतीश कुमार भी एनआरसी के मुद्दे पर यह कह रहे हैं कि बिहार में एनआरसी नहीं लागू होगा। प्रशांत किशोर सीएए के मुद्दे पर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के स्टैंड की तारीफ भी कर चुके हैं। वह लगातार बीजेपी और मोदी सरकार पर सवाल उठाते रहे हैं। ऐसे में नीतीश कुमार के लिए उनके बयान काफी असहज करने वाले हो रहे थे। एकतरफ बीजेपी से गठबंधन, दूसरी तरफ पीके की लगातार बयानबाजी से नीतीश कुमार भी परेशान हो गए थे।
दिल्ली चुनाव भी एक वजह?
प्रशांत किशोर नेता बनने से पहले चुनावी रणनीतिकार रहे हैं। नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार की कमान संभालने के बाद वह उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए, बिहार में नीतीश कुमार के लिए, आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी के लिए चुनावी कैंपेन का काम संभाल चुके हैं। अब उनकी कंपनी आई-पैक पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के लिए चुनावी कैंपेन पर काम कर रही है। दिल्ली चुनाव से जुड़े एक ट्वीट को लेकर भी वह निशाने पर आए थे, जिसमें उन्होंने इशारों-इशारों में बीजेपी के लिए लिखा था कि 'जोर का झटका धीरे लगना चाहिए।' उधर, पवन वर्मा ने भी दिल्ली चुनाव में बीजेपी-जेडीयू गठबंधन का विरोध किया था। दिल्ली में बीजेपी और जेडीयू के बीच गठबंधन हुआ है। जेडीयू यहां चार सीटों पर चुनाव लड़ रही है।